राजस्थानी भाषी लोग जब भी अपनी मातृभाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने अथवा प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा राजस्थानी में देने की गुहार करते हैं, तो न जाने क्यों गैर राजस्थानी भाषी चिंतित हो जाते हैं। जबकि राजस्थान में उनकी संख्या नगण्य है। बंगाल, आसाम, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश व गुजरात आदि प्रान्तों में रहने वाला राजस्थानी भाषी वहां कभी प्रतिकार करता नजर नहीं आता। सर्वविदित है कि बंगाल, आसाम, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश व गुजरात में राजस्थानी भाषियों का संख्या बल कम नहीं है। राजस्थानी भाषी जहां भी रहता है, वहां प्रतिकार नहीं करता, अपितु वहां समरस हो जाता है। यह बात राजस्थान में रहने वाले गैर राजस्थानी भाषियों ने आज तक नहीं सीखी। इन लोगों की जो भी मातृभाषा है, उसका हम सम्मान करते हैं। उनकी भाषा से प्रान्त में हमारा कोई विरोध नहीं है। वे अपनी मातृभाषा के हित में बात करें। हम उनके साथ हैं, मगर इस कीमत पर नहीं कि हम अपनी मातृभाषा को भाषा ही न मानें और आठवीं अनुसूची में शामिल करने का विचार छोड़ दें। राजस्थानी भाषा को भाषा न मानने वाले व इसको आठवीं अनुसूची में शामिल करने का विरोध करने वाले वे मुट्ठी भर लोग हैं, जिनके पूर्वजों को राजस्थान के रजवाड़ों ने अपने यहां हिन्दी के प्रचार-प्रसार के निमित्त सम्मान से बुलवाया था। उस समय हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने का जिम्मा रजवाड़ों ने आगे बढ़कर उठाया था। उस काल में राजस्थान के समस्त रजवाडों में राजकाज, शिक्षा, पट्टे, परवाने, हुण्डी आदि सब राजस्थानी भाषा में होते थे। इसके प्रमाण राजस्थानी के प्राचीन ग्रंथागारों-संग्रहालयों में देखे जा सकते हैं।
अन्य प्रदेशों से आए हिन्दी के विद्वानों व अध्यापकों ने जयपुर, बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर, अजमेर, उदयपुर, चित्तौड़, भरतपुर, डूंगरपुर, धौलपुर, बांसवाड़ा, नागौर आदि में डेरे डाले व राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया तथा विद्यालयों में हिन्दी की शिक्षा दी। तब तक इन समस्त रजवाड़ों में राजस्थानी भाषा में ही पढ़ाया जाता था। इन विद्वानों को रजवाड़ों ने भूमि के पट्टे, ताम्रपत्र, मंदिर-माफी की भूमि के परवाने दिए, जो आज भी इन विद्वानों के घरों में देखे जा सकते हैं। ये विद्वान जिन घरों में बैठते हैं, यदि वे घर रियासत काल के हैं तो उनके पट्टे पढ़ लें। उसमें मिल जाएगी राजस्थानी भाषा।
आजादी के बाद जब भाषा के आधार पर प्रान्त बने तो अन्य भाषाई प्रान्तों की तरह राजस्थानी भाषा के आधार पर हमारा राजस्थान बना। उस समय प्रान्तीय भाषाओं को द्वितीय राजभाषा का दर्जा दिया जाने लगा। मराठी, तमिल, तेलुगु, उडिय़ा, मलयालम, गुजराती, कश्मीरी, पंजाबी, उर्दू आदि भाषाएं प्रान्तीय भाषाएं बनीं तो हमारे तत्कालीन राष्ट्रीय नेताओं को हिन्दी सिमटती नजर आई। उन्होंने राजस्थान के नेताओं से अपील की कि आप कुछ वर्ष रुक जाओ। जब हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित हो जाएगी जब राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में डालकर राज्य की द्वितीय राजभाषा बना दी जाएगी।
अन्य प्रदेशों से आए हिन्दी के विद्वानों व अध्यापकों ने जयपुर, बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर, अजमेर, उदयपुर, चित्तौड़, भरतपुर, डूंगरपुर, धौलपुर, बांसवाड़ा, नागौर आदि में डेरे डाले व राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया तथा विद्यालयों में हिन्दी की शिक्षा दी। तब तक इन समस्त रजवाड़ों में राजस्थानी भाषा में ही पढ़ाया जाता था। इन विद्वानों को रजवाड़ों ने भूमि के पट्टे, ताम्रपत्र, मंदिर-माफी की भूमि के परवाने दिए, जो आज भी इन विद्वानों के घरों में देखे जा सकते हैं। ये विद्वान जिन घरों में बैठते हैं, यदि वे घर रियासत काल के हैं तो उनके पट्टे पढ़ लें। उसमें मिल जाएगी राजस्थानी भाषा।
आजादी के बाद जब भाषा के आधार पर प्रान्त बने तो अन्य भाषाई प्रान्तों की तरह राजस्थानी भाषा के आधार पर हमारा राजस्थान बना। उस समय प्रान्तीय भाषाओं को द्वितीय राजभाषा का दर्जा दिया जाने लगा। मराठी, तमिल, तेलुगु, उडिय़ा, मलयालम, गुजराती, कश्मीरी, पंजाबी, उर्दू आदि भाषाएं प्रान्तीय भाषाएं बनीं तो हमारे तत्कालीन राष्ट्रीय नेताओं को हिन्दी सिमटती नजर आई। उन्होंने राजस्थान के नेताओं से अपील की कि आप कुछ वर्ष रुक जाओ। जब हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित हो जाएगी जब राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में डालकर राज्य की द्वितीय राजभाषा बना दी जाएगी।
आपका यह लेख पढ़कर बहुत सी बातोंं के बारे में पता लगा साथ ही इस समस्या का समाधान क्षेत्रीयता और भाषावाद के जहर से हो पाएगा यह भी मेरा मानना है। इसके लिए राजस्थानी भाषा को वोट बैंक का गणित बनााने का प्रयास करना होगा। सबसे बड़ी समस्या यह है कि आम जनमानस जिसेे हम राजस्थानी कह सकते है वह आज इसकी मान्यता की जरुरत नहीं समझता या उसे जरुरत महसूस नहीं होती।
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